गुरुवार, 5 अगस्त 2010

कैसे मिले शोषित महिलाओं को त्वरित न्याय ?

सन २००१ में एक महिला शक्ति सम्पन्नता नीति बनाई गई थी, जिसके अंतर्गत केंद्र सरकार ने महिलाओं को शारीरिक, मानसिक और आर्थिक तौर पर सबल बनाने पर जोर दिया था.. बाद में सरकार बदली और नई परिस्थितियों में भी महिलाओं की बेहतरी के लिए छोटी -बड़ी घोषणाएं हुई, उनके हित में थोड़ा बहुत काम भी हुआ...इन सबके बावजूद जब हम सचाई से रूबरू होते है तो देखते हैं कि आज भी गरीब और निम्न वर्ग की महिलायें मूल धारा से कटी ,उत्पीडन के साथ अस्तित्व विहीन जीवन जी रही हैं.. इन औरतों को जितना सहयोग मिलना चाहिए नहीं मिलता. हमारे संविधान के अनुच्छेद 39 [क] में राज्यों को यह दायित्व दिया गया है कि वह सुनिक्षित करे कि कोई भी नागरिक न्याय पाने से वंचित ना रह जाये और इस दायित्व को निभाने के लिए विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम-1987 लागू किया गया, इस अधिनियम की धारा 19 में लोक अदालतों की व्यवस्था है जिसमे प्रत्येक राज्य, नियमित अंतराल पर जिला अथवा तहसील में लोक अदालतों का आयोजन करने के लिए बाध्य है... इसमें पारिवारिक विवादों और अन्य मामलों को समझौतों के आधार पर त्वरित निराकरण किया जाता है लेकिन बहुत से मामले ऐसे भी होते है जो अदालती पेचदगियों में फँस कर रह जाते हैं, और कभी-कभार विशेष महिला लोक अदालतें भी आयोजित की जाती हैं... ऐसी ही एक महिला लोक अदालत का आयोजन दो-तीन वर्ष पूर्व मध्यप्रदेश के रायसेन जिले में लगाई गई थी, तब मैं वहां मौजूद थी जहाँ मुझे पीड़ित महिलाओं और अदालत के बीच मध्यस्ता करनी थी, जहाँ तीन भिन्न आयु वर्ग की महिलायें अदालत में उपस्थित थी जिन्हें भिन्न कारणों से उनके पतियों ने छोड़ दिया था.. क्षेत्रीय अदालतों ने उनके भरण-पोषण हेतु जो मुआवजा तय किया था वह उन्हें कई दिनों से नहीं मिला था. इनमे से एक थी ४७ वर्षीय मथ्थो बाई जिसका पति "एम.पी. ई. बी." में लाइनमेन था ,वो बीस हजार रूपये देकर पत्नी से पीछा छुड़ाना चाहता था उसने १५ वर्ष पहले ही किसी दूसरी औरत से विवाह कर लिया था, अदालत को जब ये बताया गया कि वो सरकारी नौकरी में है और रिटायरमेंट के बाद उसे मोटी रकम मिलेगी तो क्यों ना वह अपनी पहली पत्नी को एक लाख बीस हजार रूपये दे..? ताकि वो अपना गुजारा थोड़ा बहुत ठीक से चला सके.. अदालत ने उसी शाम मथ्थो बाई के पति को उक्त रकम देने का आदेश दिया, ये बात अलग थी कि सरकारी नौकरी में रहते हुए दूसरी शादी करने के आरोप में अदालत उसे सजा देती..
दूसरी महिला २३ वर्षीय गीता बाई थी वो अपने पति के साथ रहना चाहती थी लेकिन पति उसे साथ नहीं रख रहा था, उसका आरोप था कि गीता जिस बच्चे की माँ है वह उसका नहीं है, गीता शाम तक रोती रही लेकिन उस दिन उसका फैसला ना हो सका.. तीसरी औरत १८ वर्षीय यास्मीन थी, जो अपने बेहद गरीब पिता के साथ वहां मौजूद थी, जो किसी से बीस रूपए उधर लेकर अदालत तक पहुंची थी, लड़की का पिता बेटी को सुसराल नहीं भेजना चाहता था उसका आरोप था कि उसकी बेटी, पति और ससुर द्वारा दहेज के लिए प्रताड़ित होती है.. हालांकि लंच ब्रेक में उसने बताया की वो अदालत के सामने ये कभी नहीं बता पाएगी की उसका ससुर उसे किस किस तरह से यौन प्रताड़ना देता है.. अदालत में शाम तक सवाल जवाब का सिलसिला चलता रहा लेकिन यास्मीन के हक में कोई फैसला ना हो सका और अदालत अगले माह तक के लिए स्थगित हो गई..
तीन औरतों कि इस साधारण कहानी में शोषित औरतों के एक ऐसे तबके की ऐसी तस्वीर है जो जीवन आसानी से नहीं जी पा रही है, लोक अदालते/महिला लोक अदालतों का उद्देश्य भले ही आपसी द्वेष मिटाकर विवादों का निराकरण करना हो पर ऐसा शत-प्रतिशत कहाँ हो पाता है? महिलाओं को त्वरित न्याय मिले इसके लिए सरकार, न्यायपालिका, समाज और मीडिया को प्रभावी और महती भूमिका निभाने की जरूरत है..
हालांकि पिछले दिनों अप्रैल में नवलगढ़ [राजस्थान]में फास्ट ट्रेक अदालत ने 26 दिनों में ही एक नाबालिग लड़की के अपहरण और बलात्कार के प्रयास के अभियुक्तों को 5 वर्ष की कठोर सश्रम सजा का फैसला सुना कर अनूठी मिसाल पेश की है, देश की न्यायपालिका यदि मुकदमों पर त्वरित फैसले सुनाती है, तो मुकदमो के लगे ढेर को कम किया जा सकता है... न्याय पालिका को इसके लिए गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि हम सभी जानते हेँ समय पर ना मिलने वाला न्याय न्याय की श्रेणी में नहीं आता
[अगली कड़ी में अदालतों के अंतर्गत पेंडिंग मामले, "सी.आर.पी.सी." में नए संशोधन फास्टट्रेक अदालतों की गतिविधियां आदि..]